कौन कहता है
पर्वतों मे गीत नहीं होता
कठोरता के बीच
मधुर संगीत नहीं होता?
होता है बहुत कुछ
पत्थर के दिलों मे
बस सुनाने का अपना
अंदाज नहीं होता.
देखा है रोते हुए
पत्थरों को मैंने
बहते हैं उनके अंशु
जो गिरते हैं झरने.
आहें भरा करते
पत्थर जो लुढ़कते
जब तन से उनके वृक्षों के
आँचल है सरकते.
सरकता है जब आँचल
बे पर्दगी होती
उघडा हुआ हो जिस्म
निगाहें सबकी लगी होती.
होते हैं जो इंसान
कभी वो भी बहकते
हसरत लिए दिल मे
भले चुप ही रहते.
सुनने को गीत पत्थरों का
पर्वत को काटते.
कटे हुए जिस्म पर
फिर कंकरीट लादते.
कटते हुए पर्वत भला
गीत कौन सा गायें
नंगा हुआ जिस्म उनका
गीत कैसे सुनाएँ?
देखो जरा पर्वतों पर
वृक्ष लगाकर
नंगे हुए जिस्म पर
हरी चुनरी सजाकर.
पत्थरों मे गीत
तुम्हे सुनाई पड़ेंगे
बहते हुए झरने
तब संगीत बनेंगे.
चुनरी हरी हो यदि
माता के भाल पर
खेलती हों नदियाँ
उसकी कदम ताल पर.
कंकरीट के जंगलों का
न हो वहाँ जमाव
पत्थरों मे गीत के
मधुर स्वर आयेंगे.
आओ हम सब मिलकर कम से कम एक पेड़ का रोपण अवस्य करें.
आओ हम एक प्रण करें
धरती पर वन सघन करें
वृक्ष धरा के आभूषण
दूर करें सब प्रदुषण .
और अपनी धरती,पातळ,गगन,जल,वायु एवं अग्नि की पवित्रता बनाये रखने का संकल्प लें.
डॉ.अ.किर्तिवर्धन
मंगलवार, 14 अप्रैल 2009
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1 टिप्पणी:
कई मायनों से अद्भुत रचना.
जंगल में अगर हम हरी पौध लगाने लगें तो सारी दुनिया हरियाली से सरोवर होगी इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं.
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बहुत खूब. जारी रहें.
[अमित के सागर]
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